सबसे अधिक मनोरंजन करने वाला ऐप! साइप-अप करने पर पाएं 500 रुपए
दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश संयुक्त राज्य अमेरिका में आज नया राष्ट्रपति चुनने के लिए मतदान हो रहा है। क्या डोनाल्ड ट्रंप सभी कयासों को धता बताते हुए फिर से वाइट हाउस पहुंचेंगे या जो बाइडेन उन्हें वहां से बेदखल कर देंगे? इस सवाल का जवाब हमें कुछ घंटों में मिलने वाला है। मुकाबला उप-राष्ट्रपति पद के लिए माइक पेंस और कमला हैरिस के बीच भी है। अधिकतर सर्वे बाइडेन को बढ़त दिखा रहे हैं लेकिन आखिरी हफ्तों में खेल थोड़ा बदला है। कड़ी टक्कर वाले राज्यों में बेहद रोमांचक स्थिति है। बुधवार सुबह जब नतीजे आने शुरू होंगे तो उसका असर पूरी दुनिया पर देखने को मिलेगा। भारत के लिए इन दोनों उम्मीदवारों में से किसकी जीत ज्यादा फायदेमंद हैं, आइए समझने की कोशिश करते हैं।
भारत के लिए क्यों इतना अहम है अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव?
भारत के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका से रिश्ते न केवल आर्थिक, बल्कि सामरिक और सामाजिक नजरिए से भी बेहद अहम हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति दोनों देशों के बीच रिश्तों पर बड़ा असर डाल सकते हैं। अमेरिका में आम राय यही है कि भारत से रिश्ते मजबूत होने चाहिए। अमेरिका में भी भारतीयों की अच्छी-खासी तादाद हैं और वे चाहते हैं कि उनकी ‘मातृभूमि’ और ‘कर्मभूमि’ में अच्छे रिश्ते हों। भारत के लिए अमेरिका से नजदीकी पाकिस्तान और चीन जैसे विरोधियों का सामना करने के लिए भी जरूरी है।
रिपब्लिकन या डेमोक्रेट, भारत के साथ मजबूती से कौन खड़ा होगा?
परंपरागत रूप से विश्लेषक मानते हैं कि रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों का झुकाव भारत की ओर रहता है। हालांकि इस बात में पूरा सच नहीं है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद देखें तो भारत की सबसे ज्यादा तरफदारी करने वाले दो राष्ट्रपति हुए। पहले 1960 के दशक में जॉन एफ केनेडी और फिर 2000 के दशक में जॉर्ज डब्ल्यू बुश। केनेडी जहां नियो-कंजरवेटिव रिपब्लिकन थे, वहीं बुश डेमोक्रेट। दोनों ने नई दिल्ली के साथ रिश्तों को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। केनेडी को अपने कार्यकाल में चीन के खिलाफ भारत को काफी सपोर्ट किया। बुश और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच काफी अच्छे संबंध भी रहे। ऐसे ही दोनों विचारधाराओं के राष्ट्रपतियों ने भारत को कई मौकों पर झटका भी दिया। चाहे वह भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय राष्ट्रपति रहे रिपब्लिकन रिचर्ड निक्सन हों या 1990 के दशक में भारत को परमाणु कार्यक्रम के लिए दबाने वाले डेमोक्रेट बिल क्लिंटन।
चीन को लेकर अलग हैं ट्रंप और बाइडेन के विचार
हाल के दिनों में कोरोना महामारी ने चीन के प्रति दुनिया का नजरिया बदला है। भारत के साथ लगी सीमा पर तनाव पैदा करके उसने एक और संकट पैदा किया। ट्रंप ने कोरोना और भारत से सटी सीमा पर तनाव, दोनों के लिए चीन को खुलेआम जिम्मेदार ठहराया है। ट्रंप सीधे-सीधे चीन से लोहा लेना चाहते हैं जबकि बाइडेन डिप्लोमेसी की वकालत करते हैं। ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मित्रता’ भी चर्चा का विषय रही है। मोदी और बाइडेन 2014 में मिल चुके हैं, तब बाइडेन अमेरिका के उप-राष्ट्रपति हुआ करते थे।
पाकिस्तान को लेकर ज्यादा सख्त रहे हैं ट्रंप
संयुक्त राज्य अमेरिका कई बार भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थ की भूमिका में रहा है लेकिन दोनों देश साफ तौर पर उसकी भूमिका नहीं मानते। अमेरिका पाकिस्तान को वैसे तो दोस्त की तरह देखता है लेकिन चीन से उसकी नजदीकियों और आतंकवादियों को शरण के चलते यह रिश्ता दिन-ब-दिन कमजोर हो रहा है। ट्रंप ने कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता का प्रस्ताव देकर बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया था लेकिन जैसे ही भारत ने कड़ा रुख अपनाया, वे पीछे हट गए। ट्रंप पाकिस्तान का नाम लेकर इस्लामिक आतंकवाद की कई बार भर्त्सना कर चुके हैं। जबकि बाइडेन अगर चुने जाते हैं तो वे अमेरिका की पुरानी ‘देखो और जरूरत के हिसाब से ऐक्शन लो’ वाली पॉलिसी पर चल सकते हैं।
व्यापार के लिहाज से कौन सा नेता मुफीद?
संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत के बीच व्यापारिक रिश्तों में उथल-पुथल रही है। अमेरिकी माल पर टैरिफ लगाने से ट्रंप खासे भड़के थे और भारतीय उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा दिया था। हालांकि दोनों देशों के बीच का यह झंझट नया नहीं है, लेकिन दुनिया के सामने इसे कैसे दिखाया जाता है, यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है। ट्रंप जहां सबके सामने ढिंढोरा पीटकर ऐसी घोषणाएं करते हैं, बाइडेन प्रशासन में रणनीतिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इसे अंडरप्ले किया जा सकता है। ट्रंप जब इस साल भारत आए तो थे उन्होंने मोदी को ‘टफ नेगोशिएटर’ कहा था। इधर भारत ने ‘आत्मनिर्भर’ होने का अभियान चलाया है, उसका रिश्तों पर कैसा असर होगा, यह देखने वाली बात होगी।
नाशपाती सेब, आदि फलों के बागों के पुनर्जीवीकरण और विस्तारीकरण की बनेगी योजना।