मेहरबान की मेहरबानी,राजधानी के पत्रकार आमरण अनशन को मजबूर

किसी भी सरकार के स्थायित्व के लिए सरकार के मुखिया का लचीला होना प्रदेश की जनता और सरकार दोनों के लिए बेहतर होता है।

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उत्तराखंड सूचना एवं  लोक संपर्क विभाग के महानिदेशक मेहरबान सिंह बिष्ट की हठधर्मिता ने राजधानी ही नहीं बल्कि ,समस्त प्रदेश के लघु एवं मध्यम समाचारपत्रों के संचालकों को एकजुट कर दिया है,अब तो दिन प्रतिदिन इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है ,इस आंदोलन में वेब पोर्टल संचालक भी जुड़ गए हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो, आने वाले समय में पत्रकारों का आंदोलन सरकार के लिया मुसीबत खड़ी कर सकता है

प्रदेश में वेब पोर्टल की अच्छी खासी संख्या है जो की निरंतर बढ़ती ही जा रही है ,त्वरित गति से समाचारों को प्रकाशित कर सोशल मीडिया एवं अन्य माध्यमों से लोगों तक पहुँचने की क्षमता के चलते इनकी लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ी है। प्रचार व  प्रसार के समस्त माध्यमों को पीछे धकेलते हुए वेब पोर्टल लोगों के दिलों दिमाग पर अपनी छाप छोड़ने में सफल हो रहे है ,इसलिए इनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।वो समय दूर नहीं जब, वेब पोर्टल अख़बारों और न्यूज़ चैनलों को पीछे छोड़ लोगों के दिलों दिमाग पर छा जायेंगे।

वेब पोर्टल की ताक़त  को देखते हुए  लघु एवं मध्यम समाचारपत्रों के अधिकांश प्रकाशकों ने भी अपने न्यूज़ पोर्टल संचालित कर दिए हैं,इसलिए  इस आंदोलन में सभी लोग एकजुट हो कर कूद पड़े हैं।दूसरी ओर अपने आप को प्रदेश का मसीहा समझने वाले कुछ अख़बारों एवं चैनल में कार्यरत पत्रकार इस आंदोलन से दूरी बनाये हुए हैं क्यूंकि, लालाओं की नौकरी में ही इनकी पूछ है।

वास्तविकता में अगर देखा जाये तो अपने वजूद के लिए संघर्षरत ये लोग चाह कर भी इस आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सकते। इनकी पत्रकारिता लालाओं  की नौकरी में ही संभव है। जबकि, नौकरी की यहाँ कोई गारंटी नहीं।आंदोलन में कूदे तो, हाकिम नाराज। हाकिम नाराज तो, मालिक नाराज। मालिक नाराज तो, हो गए पैदल।पैदल हो गए तो फिर कौन पूछेगा ? दुकानदारी कैसे चलेगी ? दुकानदारी चलती रहे इसीलिए किनारे हो लिए।

इसी प्रकार , कुछ ऐसे मठाधीश  भी है जो पत्रकार संगठनों के नाम पर अपनी दूकान चला रहे हैं ,उन्हें अपनी जमीन खिसकती नजर आ रही है। ऐसे लोग इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए अपनी पत्रकार कौम से ही गद्दारी करने से नहीं चूक रहे। जबकि आंदोलनरत पत्रकारों की मांग सभी के हित में है।

यदि इन संगठनों के करता धर्ता समय रहते अपनी आवाज पत्रकारों के हित में उठाते तो आज यह नौबत ना आती। अब जब, ये आंदोलन गति पकड़ने लगा है तब ये लोग, अपना-अपना मांग-पत्र लेकर सूचना विभाग की देहलीज़ नाप रहे हैं।

उत्तराखंड सूचना निदेशालय के प्रांगण में महज साधारण धरने से शुरु होकर, शुध्दि-बुद्धि यज्ञ से होता हुआ ये आंदोलन, मशाल जलूस के रूप में राजधानी की सड़कों तक आ पहुंचा है। इस मशाल जलूस की तपन प्रदेश के अन्य ज़िलों तक पहुंचने लगी है। और अब तो ,बात आमरण अनशन तक आ  पहुंची है। जो की सरकार और पत्रकारों के बीच पनपती खाई को और गहरा करती नजर आ रही है।

कुछ भी हो अब, यह आंदोलन थमने वाला नहीं लगता। एक तरफ महानिदेशक सूचना की हटधर्मिता तो दूसरी तरफ अपनी मांगों पर डटे पत्रकार। सरकार के मुखिया की ख़ामोशी पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती महानिदेशक की कार्यप्रणाली।

यदि समय रहते सरकार के मुखिया ने इस पर कोई सकारात्मक पहल नहीं की तो आने वाले समय में इसका खामियाजा वर्तमान सरकार के साथ ही बीजेपी को भी उठाना पड़ सकता है।

सरकारें जनता द्वारा चुनी जाती हैं,सरकार की योजनाओं को पत्रकार ही जनता के सामने रखते है,न की अधिकारी,अधिकारीओं  द्वारा बरती गई लापरवाही अथवा उनकी हटधर्मिता सरकारों पर भारी पड़ जाती हैं। अधिकारिओं का क्या है वे तो हाथ झाड़ कर निकल लेते हैं ,जवाबदेही तो सरकार की बन जाती है।

सरकारें तो आती जाती रहती हैं ,किसी भी सरकार के स्थायित्व के लिए सरकार के मुखिया का लचीला होना प्रदेश की जनता और सरकार दोनों के लिए बेहतर होता है। अच्छा होता यदि ,सरकार के मुखिया अथवा उनका कोई प्रतिनिधि आंदोलनकारी पत्रकारों से वार्ता कर कोई सकारात्मक समाधान निकालने का प्रयास करते।

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