नई दिल्ली: सरदार वल्लभ भाई पटेल की आज 141 वीं जयंती है. सरदार पटेल की जयंती को एकता दिवस के तौर पर देश मना रहा है. दिल्ली के संसद मार्ग पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के पहले गृह मंत्री लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति पर फूल-माला चढ़ाई. वहीं संसद में भी लौह पुरुष सरदार पटेल की याद में कार्यक्रम का आयोजन हुआ. इस मौके पर पीएम मोदी के अलावा केंद्रीय मंत्रियों और विपक्ष के नेताओं ने पटेल को श्रद्धांजलि दी.
कल पीएम मोदी ने रेडियो पर अपने कार्यक्रम मन की बात में कहा था कि आजाद हिंदुस्तान को एक झंडे के तले लाने वाले सरदार पटेल के एकता के मंत्र को लेकर हमें आगे बढ़ना है.
आग चाहे कैसी भी हो उनकी लोकप्रियता को खत्म नहीं कर सकती
अब एक दृश्य की कल्पना कीजिये . दिन 15 दिसंबर 1950 . शहर मुबंई . समुंद्र का किनारा . एक चिता जल रही थी . सामने हजारों लोग थे . उनमें इस देश पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और तब के बहुत बड़े नेता सी राजगोपालाचारी भी मौजूद थे . दोनों की आंखें नम थीं . राजेन्द्र प्रसाद ने चिता को देखते हुये कहा कि सरदार का शरीर अग्नि में विलिन हो रहा है . लेकिन आग चाहे कैसी भी हो उनकी लोकप्रियता को खत्म नहीं कर सकती . हम लोग खुद के लिये शोक मना रहे हैं . उनके लिये नहीं . 31 अक्टूबर 1885 को सरदार पटेल का जन्म हुआ था आज उसी की जयंती मनाई जा रही है .
भारत के सरदार लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल . 31 अक्टूबर 1885 के दिन सरदार पटेल का जन्म हुआ था . अब हर साल उनके जन्म दिवस यानी 31 अक्टूबर को नैशनल यूनिटी डे मनाया जायेगा . इसकी वजह है देश को जोड़ने में उनकी भूमिका . अगर सरदार पटेल ने अपनी भूमिका अदा न कि होती तो भारत के नक्शे का शक्ल कुछ ऐसा हो सकता था .
माउंटबेटन ने प्रेस कॉफ्रेंस बुलायी थी
4 जून 1947 ,तब के लेजीसलेटिव असेंबली और आज के संसद भवन में माउंटबेटन ने प्रेस कॉफ्रेंस बुलायी थी . ये प्रेस कॉफ्रेंस कितनी अहम होने वाली था इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वायसराय माउंटबेटन, 3 जून की रात, देर तक प्रेस कॉफ्रेंस की मॉक ड्रील करते रहे थे . दुनिया भर से 300 पत्रकार माउंटबेटन से भारत के भविष्य के बारे में सवाल करने के लिये इकट्ठा हुये थे .
मै इस बात को गंभीरता से मानता हूं कि ट्रांसफर आफ पावर जैसा जून 1948 में होता वैसे ही 1947 में किया जा सकता है . ब्रिटेन भारत में अगस्त 1947 तक सत्ता का हस्तातंरण कर सकता है . 15 अगस्त 1947 की स्टीमर टिकट बुक कर ली है …इस लिये हस्तांतरण का दिन होगा .
ये बात चौंकाने वाली इसलिये थी कि पहले अंग्रेज जून 1948 तक भारत छोड़ कर जायेंगे . और अब माउंटबेटन ने ये घोषणा कर दी थी कि महज 72 दिन में बंटवारा भी होगा और आजादी भी मिल जायेगी. आजादी का देर या सवेर आना तय था लेकिन 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने की घोषणा के साथ ही एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ. जिसका जवाब ढूंढ़े बैगर आजादी बेमानी थी . सवाल ये था कि आखिरकार कितने मुल्क आजाद हो रहे थे 2 या फिर 560.
15 अगस्त, 1947 को कितने मुल्क आजाद हो रहे थे . 2 या तकरीबन 560. इस सवाल का जिक्र इतिहास की किताबों में कम ही मिलता है. लेकिन हिन्दुस्तान की आजादी से कुछ महीने पहले से ही महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरु के सामने दो सबसे बड़ी समस्या थी पहली साम्प्रदायिक हिंसा को कैसे रोका जाये और दूसरा भारत की शक्ल को बिगड़ने से कैसे रोका जाये. और इस फिक्र के पीछे की वजह थी लैप्स ऑफ पैरामाउंटेंसी.
रजवाड़ों ने ब्रिटेन की राजगद्दी की गुलामी कबूल कर ली थी
एक तरफ तो हम ये सुनते आ रहे हैं कि अंग्रेजों ने पूरे भारत को एक सूत्र में बांध दिया था फिर ये 560 से भी ज्यादा अलग-अलग देश की बात कहां से आई . दरअसल जिस ब्रिटिश इंडिया की बात हम कर रहे हैं उसमें छोटे, मझौले, बड़े सब मिलाकर, तकरीब 565 रजवाड़े थे .इन रियासतों पर अंग्रेजों का परोक्ष शासन था. इन राजाओं की अपनी फौज, अपनी पुलिस, अपना कानून और कुछ की अपनी करेंसी तक होती था. इन रजवाड़ों ने ब्रिटेन की राजगद्दी की गुलामी कबूल कर ली थी जिसे पैरामाउंटेंसी कहते थे. अब जब अंग्रेज जा रहे थे तो उन्होंने कहा कि पैरामाउंटेंसी भी खत्म हो जायेगी और सभी रजवाड़े अपना भविष्य खुद तय करने के लिये स्वतंत्र होंगे. राजस्थान में सिरोही रियासत हुआ करती थी. सिरोही रियासत के मौजूदा उत्तराधिकारी रघुवीर सिंह जी को 1947 का घटनाक्रम याद है .
सिरोही के पूर्व महाराजा महाराव रघुवीर सिंह जी ने कहा है कि जैसे दो राष्ट्र संधि करते हैं उस तरह की संधि हमारी और ब्रिटिश सरकार की थी . एक बात की मैं तारीफ करता हूं हलांकि वो विदेशी थे लेकिन जब इंडिपिनडेंस एक्ट पास किया तो वे शत प्रतिशत फेयर थे.
देश आजाद हो रहा था लेकिन बिखर रहा था
ब्रिटेन ने हमेशा इन राजाओं को अपने झंडे तले रखा अपने अधिन रखा लेकिन आजादी के वक्त कहने लगी कि ये रजवाड़े स्वतंत्र रहना चाहे तो रह सकती हैं . नतीजा ये कि देश आजाद हो रहा था लेकिन बिखर रहा था. कुछ रियासत तो ऐसी थीं जो ये दवाब बना रही थी कि 15 अगस्त से पहले ब्रिटिश पैरॉमाउंटेसी को खत्म कर दिया जाये.जिससे कि वे रियासतें, हिन्दुस्तान से स्वतंत्र राष्ट्र की हैसियत से समझौते कर सकें . दूसरी तरफ मोहम्मद अली जिन्ना लगातार हिंदुस्तान की रियासतों को हवा दे रहे थे .
नेहरु को दिन में सपने देखने की आदत है . कॉग्रेस या डोमिनियन आफ इंडिया को ये अख्तियार है ही नहीं वो जबरन किसी भी रियासत को मिला अपने डोमिनियन में मिला सके . हमारे लिये लैप्स आफ पैरामाउंटेंसी का सीधा मतलब यही है कि आप चाहे तो हिन्दुस्तान में शामिल हो या पाकिस्तान में या आप अगर आजाद रहना चाहते हैं तो आजाद रहिये . इसमें जिओग्राफिकल प्रोक्सीमिटी या रायशुमारी का कोई मतलब नहीं है जैसा कॉग्रेस कह रही है .जो फैसला करना है रियासत के राजा करेंगे ..नवाब करेंगे . जो ब्रिटेन की ट्रिटी उन्ही के साथ थी .
जिन्ना का मकसद था हिन्दुस्तान कमजोर हो
मोहम्मद अली जिन्ना का मकसद था हिन्दुस्तान कमजोर हो. इस हाल में एक व्यक्ति था जो भारत की मदद कर सकता था .और वो था लार्ड लुई माउंटबेटन. यानी भारत का अंग्रेज वायसराय और गवर्नर जनरल. माउंटबेटन को भारत के पक्ष में लाने के लिये सरदार पटेल ने अपने सचिव वी पी मेनन को काम में लगाया. और खुद भी माउंटबेटन से मिले . जल्द ही वायसराय माउंटबेटन ने अपनी सहमति दे दी. उधर जवाहर लाल नेहरु ने अपनी अंतरिम कैबिनेट से वायसराय माउंटबेटन को भारत सरकार और रियासतों के बीच मध्यस्थ बनाने की रजामंदी ले ली .
सिरोही के पूर्व महाराजा रघुवीर सिंह जी कहते हैं कि ये जो रियासत अंग्रजों के एक्ट के बाद बिल्कुल आजाद हो गई थी माउंटबेटन उन्हें इनवाइट किया कि आप दोनों डोमिनियन स्टेट्स में से एक के साथ विलय कर लें इंस्ट्रूमेंट ऑफ एसेसेशनकरें . इसमें तीन चैप्टर. डिफेंस, फॉरेंन पॉलिस और संचार. ये तीनों विषय जो रियासते बिल्कुल आजाद थी वो हैंड ओवर कर देंगी टू डोमिनियन .
राजा- महाराजाओं को हिन्दुस्तान से जोड़ने के लिये रियासतों से कॉन्सटूएंट असेंबली में शामिल होने की भी दरख्वास्त की गई . उस समय इन राजा- महाराजाओं का एक संगठन काफी सक्रिय था जिसे चैम्बर आफ प्रिंसेज कहा जाता था . इसके प्रमुख थे भोपाल के नवाब हमिदुल्लाह. रियासत कॉन्सटूएंट असेंबली में शामिल ना हो इसके लिये हमिदुल्लाह ने एड़ी चोटी का जोड़ ला दिया. हमिदुल्लाह को जिन्ना के करीबी माने जाते थे..इंदौर के महाराजा भी शुरुआत में उनके साथ थे .
मध्य भारत में भोपाल, इंदौर रियासतों के रुख से परेशानी बढ़ ही रही थी. छोटी –छोटी रियासत फेडरेशन बना कर अलग मुल्क बनाने का इरादा जाहिर करने लगे थे. ये देखिये सुदूर दक्षिण का ये हिस्सा, तब ये त्रावणकोर था .11 जून 1947 को त्रावणकोर ने खुद को आजाद संप्रभुता संपन्न देश बनाने का एलान कर दिया.
समृद्ध त्रावणकोर रियासत के बगावती एलान के ठीक एक दिन बाद 12 जून 1947 को हैदराबाद ने विरोध का बिगुल बजा दिया. 12 जून 1947 को हैदराबाद ने अपनी रियासत को 15 अगस्त के बाद आजाद मुल्क बनाने का एलान किया . हैदराबाद के अलग होने का मतलब था पूरे दक्षिण भारत का संबंध उत्तर भारत से टूट जाता. संयुक्त स्वतंत्र भारत का सपना बिखर रहा था .
हालात की गंभीरता को देखते हुये रियासत मामलों के लिये एक अलग मंत्रालय का गठन किया गया . सरदार उसके मंत्री बने और वी पी मेनन सेक्रेटरी . मंत्री बनने के बाद 5 जुलाई 1947 को, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने आल इंडिया रेडियो के जरिये इन राजाओं से संपर्क साधा.
5 जुलाई, 1947, ऑल इंडिया रेडियो , दिल्ली
ये बस एक संयोग है कि कुछ लोग रियासतों में रह रहे हैं और कुछ ब्रिटिश इंडिया में . हमारा खून एक है और हमारा हित भी एक ही है . हमें टुकड़ों में कोई नहीं बांध सकता है. हमारें बीच कोई सरहद बाधा नहीं बन सकती है . इसलिये मेरा सुझाव है कि हम सभी दोस्तों की तरह साथ बैठ कर कानून बनायें ना कि बेगानों की तरह समझौते करें . मैं रियासत के राजाओं और वहां की प्रजा को दोस्ताना और सहभागिता के भाव से असेंबली की सभा में आमंत्रित करता हूं .
पटेल ने भाषण में बड़ी नरमी से राजाओं नवाबों को समझाने की कोशिश की गई. लेकिन सरदार पटेल जिन लोगों की सोच में बदलाव की उम्मीद कर रहे थे वहां कुछ नहीं बदला. उल्टे जो राजा असेंबली में पहले आ चुके थे वह भी इंस्ट्रूमेंट ऑफ एसेशन पर साइन करने से छिटकने लगे. 15 अगस्त में 46 दिन बचे थे लेकिन कोई भी राजघराना खुद को भारत से जोड़ने के लिये तैयार नहीं था . इस हाल में सरदार ने माउंटबेटन के सहारे दवाब की राजनीति शुरु की .
माउंटबेटेन पर पटेल और मेनन ने बहुत बड़ा दांव लगाया था . इनका दांव सही बैठेगा या नहीं इसकी परीक्षा 25 जुलाई 1947 को होनी थी . उस दिन एडमिरल लार्ड लुई माउंटबेटन ने अपने सारे तमगे लगाये . ब्रिटेन के राजपरिवार से अपने रिश्ते के तमाम प्रतीकों का इस्तेमाल किया. और वायसराय हाउस से निकले, उस वक्त के लेजिस्लेटिव काउंसिल की ओर, जिसे अब संसद भवन कहते हैं. लेजिस्लेटिव काउंसिल हाउस में 100 से ज्यादा , राजा महाराजा, नवाब, माउंटबेटन का इंतजार कर रहे थे .माउंटबेटन उस दिन देसी राजाओं को संबोधित करने वाले थे .
ये शायद चैंबर आफ प्रिंसेज के साथ मेरी आखिरी मीटिंग है . सत्ता हस्तांतरण की तारीख 15 अगस्त के लिये तय कर दी गई है . आप सभी को जल्दी फैसला करना चाहिये , 15 अगस्त के बाद मैं महारानी के प्रतिनिधि के तौर पर आपके मध्यस्तता करने की स्थिति में नहीं रहूंगा .
अगर आप इंस्ट्रूमेंट ऑफ एसेशन पर सहमति देते हैं तो मेरे पास ये मानने की ठोस वजह है कि श्री पटेल और कॉग्रेस आपके मान सम्मान पाने की परम्पराओं में दखल नहीं देगी . में इस सच्चाई से रुबरु होना चाहिये कि आप नई सरकार से दूर नहीं भाग सकते हैं . और नई सरकार से भागना अपनी जनता से दूर जाने जैसा है . जिनका हित आपकी जिम्मेदारी है.
जोधपुर के तत्कालीन राजा हनवंत सिंह की आधिकारिक जीवनी लिखने वाले जोधपुर यूनीवर्सिटी के पूर्व वायस चांसलर प्रोफेसर लक्ष्मण सिंह राठौड़ 25 जुलाई 1947 के दिन को भारत के एकीकरण में सबसे अहम मानते हैं .
लाइफ एंड टाइम्स आफ महाराजा हनवंत सिंह के लेखक ने बताया कि 25 जुलाई 1947 को माउंटबेटन ने एक्सटेम्पोर स्पीच दिया . और कहते हैं कि वो स्पीच माउंटबेटन के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण स्पीच था . इसमें माउटबेटन ने ये नहीं कहा कि आप हिन्दुस्तान में रहो या पाकिस्तान में जाओ. उसने तो एडवान्टेजज बताये लाभ क्या होगा . संकेत क्लियर था कि आप डामिनियन आफ इंडिया में विलीनीकरण करें.
लार्ड लुई माउंटबेटन के इस कदम से भारत के एकीकरण में मदद मिली. जैसे ही राजाओं ने देखा कि ब्रिटेन से उसे कोई मदद नहीं मिल रही है . उनका रुख बदल गया . पटियाला और बीकानेर वो राजघराने थे जिनसे हमें शुरुआती मदद मिली. उसके बाद ग्वालियर , इंदौर, नाभा, कोचिन जैसे बड़े और प्रभावशाली रियासतों ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एसेशन और स्टैंड एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर कर दिया .
देश की सबसे समृद्द रियासत हैदराबाद ने तो अपनी आजादी का एलान 12 जून को कर दिया था. हैदराबाद के निजाम के तेवर अभी भी नहीं बदले थे. भोपाल के नवाब का बगावती रुख उन्हें पाकिस्तान की तरफ खींच रहा था. और पश्चिम में जूनागढ़ और जोधपुर ने नींद हराम कर रखी थी . जोधपुर तो वो रियासत थी जिसकी सीमा प्रस्तावित पाकिस्तान से लगती थी . जोधपुर वो रियासत थी जो 28 अप्रैल को ही संविधान सभा में शामिल हो गई थी . 2 अगस्त आते –आते जोधपुर के तेवर बदल गये थे .
लाइफ एंड टाइम्स आफ महाराजा हनवंत सिंह के लेखक डॉ. लक्ष्मण सिंह राठौड़ ने बताया कि एक अगस्त को भी वो सहमत थे फिर ये परिवर्तन क्यों आया . 2 अगस्त से आया . परिवर्तन आया स्पेशल कनशेसन्स की वजह से . नवाब आफ भोपाल और दीवान आफ बड़ौदा विलीनीकरण के लिये कुछ स्पेशल कनशेसन्स चाहते थे जो स्टेट्स डिपार्टमेंट ने स्वीकार नहीं किये . महाराजा जोधपुर भी स्पेशल कनसेन्सस चाहते थे . अब उन्हें मालूम हो गया कि वो इसे स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि दो को अस्वीकार कर दिया था .
जोधपुर जैसलमेर बीकानेर के लोगों में उस दौर में बड़ी दुविधा थी कि राजा महाराजा अपनी सनक में इतिहास का रुख गलत दिशा में ना मोड़ दें . इन रियासतों को भारत में मिलाने में लगे वीपी मेनन ने अपनी किताब द स्टोरी ऑफ इंटिग्रेशन ऑफ इंडियन स्टेट्स में इसके बारे में लिखा है .
जोधपुर महाराजा हनवंत सिंह को रास्ते पर लाना मुश्किल बना हुआ था . जिन्ना और मुस्लिम लीग के दूसरे नेताओं से उनकी कई बैठकें हुईे . इस तरह की आखिरी मुलाकात में महाराजा हनवंत सिंह जैसलमेर के युवराज महाराज कुमार गिरधर सिंह को साथ ले गये क्योंकि बीकानेर के महाराजा उनके साथ जाने के लिये तैयार नहीं हुये और अकेले जाने में डर लग रहा था. वी पी मेनन जिस आखिरी मुलाकात का जिक्र कर रहे थे वो हुई थी 6 अगस्त को . मतलब आजादी से 9 दिन पहले.
लाइफ एंड टाइम्स आफ महाराजा हनवंत सिंह के लेखक डॉ. लक्ष्मण सिंह राठौड़ ने बताया जो मैंने रिसर्च जो कि उसके मुताविक महाराज राणा धौलपुर के कहने पर महाराजा आफ जोधपुर जिन्ना से मिलने गये . अब एपाइंटमेंट कौन दे . नवाब भोपाल से बात की . नवाब भोपाल से बात की तो उसने उसी दिन 6 अगस्त 1947 को जिन्ना से मुलाकात कराई . दोपहर में कराई .
तो ये कौन गये थे . जोधपुर महाराजा , नवाब आफ भोपाल , और जैसलमेर महाराज कुमार और जोधपुर महाराजा के निजी सचिव थे . ये चार लोग जिन्ना के निवास स्थान पर गये थे . दोपहर में ये मीटिंग हुई . निजी सचिव को तो महाराजा ने लांज में बैठा दिया और बाकी के तीन लोग जिन्ना से मिलने गये थे .
हनुवंत सिंह ने जिन्ना से कहा जो रियासत पाकिस्तान में शामिल हो रही हैं उन्हें आपसे क्या मिलेगा . तो जिन्ना ने कहा कि मैं उन्हें हिन्दुस्तान से कहीं ज्यादा सहूलियत देने के लिये तैयार हूं . आपके लिये योर हाईनेस. मैं सादे कागज पर साइन कर रहा हूं . पाकिस्तान में शामिल में होने के लिये जो भी शर्त आप डालना चाहें डाले लें.
सिरोही के पूर्व महाराजा रघुवीर सिंह जी ने बताया कि जून 1947 में ग्रेट उम्मेद सिंह जी का देहावसान हो गया माउंटआबू में . उसके बाद उनके पुत्र हनुवंत सिंह का राज तिलक हुआ. उनका जन्म 1923 में हुआ था आप समझ सकते हैं कि वो उस वक्त नौजवान थे . जिन्ना ने सोचा जो कि सही भी था कि उसका देश साइज में बढ़े शक्ति में बढ़े अगर जोधपुर उनके साथ मिल जाता तो उनके लिये फेदर इन दी कैप हो जाता तो जिन्ना ने एक ब्लैंक चेक दिया.
सरदार पटेल को जोधपुर के दीवान के मार्फत से हनवंत सिंह के इरादों का पता चल गया था . सरदार के कहने पर ही माउंटबेटन ने महाराजा हनवंत सिंह को दिल्ली बुलाया था . अब जोधपुर को बचाने का पूरा दारोमदार अब सरदार पटेल पर था .
पटेल ने कहा देखो हनुवंत , तुम्हारे पिता उम्मेद सिंह जी हमारे दोस्त थे और उन्होंने तुम्हें हमारे देखरेख में छोड़ा है. अगर तुम रास्ते पर नहीं आये तो समझ लो कि मुझे तुम्हे अनुशासन में लाने के लिये पिता के रोल में उतरना पड़ जायेगा. महाराजा ने कहा नहीं आपको ऐसा करने की जरुरत नहीं पड़ेगी . मैंने फैसला कर लिया है मैं इसी वक्त लार्ड माउंटबेटन के पास जा कर इंस्ट्रूमेंट ऑफ एशेसन पर साइन कर दूंगा .
आखिरकार 11 अगस्त को यानी आजादी से चार दिन पहले महाराजा हनुवंत सिंह ने इंस्ट्रूमेंट आफ एक्शेसन पर दस्तखत कर दिये . आजादी से महज 4 दिन पहले जोधपुर भारतीय संघ में शामिल हुआ. लेकिन मुल्क की ये शक्ल जो आज आप देखते हैं आजादी के चार दिन पहले तक बिखरी हुई थी. सबसे बड़ा हैदराबाद, जम्मू कश्मीर, जूनागढ़ भोपाल भारत संघ में शामिल होने के लिये तैयार नहीं थे . गुजरात की जूनागढ़ रियासत ने तो पाकिस्तान में विलय का एलान कर दिया .
भारत सरकार को कुछ इस तरह अखबारों से पता चला कि गुजरात का जूनागढ, पाकिस्तान का हिस्सा बन गया है . और अब जूनागढ़ की 3,337 स्वेक्यर मील जमीन पर पाकिस्तान का कब्जा होगा . इसी के साथ जूनागढ़ रियासत की 6 लाख 70 हजार की आबादी पाकिस्तान के हाथों का मोहरा बन गयी थी . और इन सब के पीछे थे जूनागढ़ के नवाब जिनका नाम था नवाब मुहम्मद महाबत खान्जी.
जूनागढ़ के तत्त्कालीन नवाब के पोते जहांगीर खान जी बताते हैं कि पावर्स जो थे जो वेस्ट करते थे हिजहाइनेसस नवाब महाबत खान जी एंड रूलर ऑफ जूनागढ़ स्टेट , उनने उस पावर को एक्सरसाइज करते हुए पाकिस्तान के साथ 15 सितंबर को एक इलाख के ऊफर दस्तखत किए. जूनागढ़ जैसी रियासतों के इन फैसलों से देश काफी मुसीबत में पड़ गया जिन्हें हल किए बगैर आंगे बढ़ना मुश्किल हो गया . सरदार पटेल का रुख शुरु से ही साफ था . पटेल ने कहा था कि आज हमें फैसला करना है कि हमारे शरीर में पड़े जूनागढ़ के घाव को रिसने दें. सड़ने दें . मवाद पड़ने दे या उसका इलाज करें.
जूनागढ़ के साथ क्या किया जाए. इस बात पर फैसला करने के लिए कैबिनेट मीटिंग बुलाई गई लेकिन कैबिनेट मीटिंग होने से पहले ही लॉर्ड माउंट बेटेन ने इस पर बात चीत करने के लिए नेहरू , सरदार पटेल औऱ वी पी मेनन को अपने पास बुलाया .
नेहरु ने कहा कि मिस्टर माउंटबेटेन सरदार की बातें सही हैं . क्या ये सही नहीं है कि पाकिस्तान जूनागढ़ के वेरावल में बंदरगाह को डेवेलप करने और 25 हजार सैनिकों का ठीकाना तैयार करने के लिये नवाब को 8 करोड़ रुपये दिये हैं . मिस्टर माउंटबेटन जिन्ना के इस ब्लैकमेलिंग का कहीं तो अंत होगा .
पटेल ने कहा कि लार्ड माउंटबेटेन आप जब तक जूनागढ़ में फौजी कारवाही नहीं करेंगे अपनी फौजे नहीं भेजेंगे तब तक पाकिस्तान की ब्लैकमेलिंग से आप नहीं बच सकते . और मेरा तो ये भी मानना है कि हमें जूनागढ़ के लिए कोई सख्त कार्यवाही करनी चाहिए .वरना हमारी नरमी, उसकी कीमत हमें कश्मीर में , हैदराबाद में चुकानी होगी .
देश के पहले गृह मंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल खुद गुजरात के थे . सरदार पटेल का जन्म गुजरात के नंदीगांव में हुआ था . गांव का नाम था करमसद . 31 अक्टूबर 1875 को उनका जन्म दिवस माना जाता है . लेकिन बल्लभ भाई पटेल ने इस दिन को अंदाजे से बतौर जन्म दिन लिखा था . क्योंकि घर के किसी भी सदस्य को उनका जन्म दिन याद नहीं था . बहरहाल 22 साल की उम्र में बल्लभ भाई ने मैट्रिक की परीक्षा पास की . अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय उन्होंने पहली बार स्कूल में रहते हुये ही दे दिया था . जब उन्होंने अपने एक शिक्षक खिलाफ विरोध प्रदर्शन आयोजित किया . शिक्षक पर पेंसिल की खरीद में मुनाफाखोरी का आरोप था . पढ़ाई पूरी कर के सरदार वकील बने .
सरदार पटेल हर तरह का केस लड़ा करते थे . उनके जिरह करने के तरीके से जज तक घबराने लगे थे . और उनका तेवर ऐसा होता था कि एक मैजिस्ट्रेट ने उनसे बचने के लिये तबादला करा लिया . 36 साल की उम्र में बैरिस्टट्री की पढ़ाई के लिये ब्रिटेन गये . उन्होंने 36 महिने की पढ़ाई 30 महिने में की और वापस आकर अहमदाबाद में प्रैक्टिस करने लगे . बाद में वो सक्रिये राजनीति में शामिल हुये और पहली बार खेड़ा सत्याग्रह से चर्चा में आये . 1927 में पटेल अहमदाबाद के मेयर बने और तभी शहर में भीषण बाढ़ में उन्होंने जिस तरह का नेतृत्व दिया उसने बल्लभ भाई पटेल को एक कुशल प्रशासक के तौर पर स्थापित कर दिया . और बारदोली में टैक्स बढ़ाने के खिलाफ सत्याग्रह ने बल्लभ भाई पटेल को सरदार बना दिया . 1947 में छपी टाइम मैग्जिन की रिपोर्ट के मुताबिक बंबई के वकील के एफ नारीमन ने पटेल को सरदार की पदवी दी थी . लेकिन आजाद भारत में उन्हें खुद दोबारा साबित करना था . उन्ही पर देश भर की रियासतों को भारत से जोड़ने का दारोमदार था . क्योंकि वो रियासत मामलों के मंत्री भी थे . सरदार पटेल ने जूनागढ़ पर माउंटबेटन का सुझाव मान लिया . इससे जूनागढ़ पर सैनिक हमला टल गया . लेकिन जूनागढ़ की नाकेबंदी के लिये माउंटबेटन को राजी कर लिया . 27 सितंबर को माउंटबैटन के साथ एक और मीटिंग हुई . और इस मीटिंग में माउंटबेटन ने मामले को यूनाइटेड नेशन में ले जाने का सुझाव दिया .
पटेल ने माउंटबेटन से कहा कि आप क्या सोचते हैं कि हम दूसरी मुल्कों के सामने साख बघारने के लिये हमें यूएनओ जाना चाहिए. ये हमारी बहुत बड़ी भूल होगी . जूनागढ़ के सहारे पाकिस्तान ने हमारे खिलाफ जंग छेड़ी है और उसका सख्ती से हमें जवाब देना होगा . हमें अपने हक के लिये किसी के आगे अर्जी लगाने की जरुरत नहीं है . सरदार पटेल ने माउंटबेटन की एक नहीं सुनी . हिंदुस्तान की फौज ने जूनागढ़ के इर्द गिर्द अपनी नाकेबंदी कायम रखी . अब एक तरफ हिंदुस्तान की फौज और दूसरी तरफ नवाब के खिलाफ उनकी ही जनता का विरोध . नवाब साहब डर गए और उन्होंने जूनागढ़ से भाग जाने का फैसला किया . अब रियासत चलाने के लिए बच गए दीवान शाहनवाज भुट्टो .
शाहनवाज भुट्टो ने पाकिस्तान से मदद की गुहार लगाई . लेकिन न जिन्ना का जवाब आया और ना ही मदद . जूनागढ़ को प्यादा बनाया गया था . प्यादे को अपनी सहूलियत के मुताबिक रास्ते से हटा दिया गया . 7 नवंबर 1947 को शाहनवाज भुट्टो ने भारत से जुड़ने की पेशकश कर दी . बाद में जब सरदार पटेल जूनागढ़ पहुंचे तो उन्होंने अपनी नीति बिल्कुल साफ कर दी . दरअसल जूनागढ़ और जोधपुर की इन घटनाओं से कुछ महिने पहले अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैग्जिन के कवर पेज पर सरदार पटेल थे . जनवरी 1947 के अंक में लिखा गया था कि बापू के अलावा भारत की एकता किसी एक इंसान के कंधो पर है टिकी है तो वो है सरदार पटेल . जूनागढ़ –जोधपुर –जैसलमेर भोपाल ये तो बस सिलसिले की शुरुआत थी इसे नहीं रोका जाता आज क्या होता इसकी कल्पना मुश्किल नहीं है . वैसे सरदार पटेल के संयम और समझ की सबसे बड़ी परीक्षा हैदराबाद में हुई .तब हैदराबाद के निजाम थे , मीर उस्मान अली बहादुर . निजाम साहब ने ये एलान कर दिया था कि वो किसी भी हालात में हैदराबाद को हिन्दुस्तान के साथ नहीं जोडेगे . और उनके साथ थे ..कासिम रजवी . कासिम रिजवी ने कहा पटेल साहब ..आप सरदार दिल्ली के हैं . हैदराबाद में हजारों साल से आसफ जाही झंडा बलंद है .दुनिया की कोई ताकत उसे नीचे नहीं उतार सकती . सुन लीजिये .
सरदार पटेल को चुनौती देने वाले ये कासिम रजवी . इनके उपर हैदराबाद के नवाब मिर उस्मान अली बहादुर का हाथ था . हैदराबाद , ग्रेट ब्रिटेन जितनी बड़ी एक रियासत थी . इसमें आज के भारत के आंध्र प्रदेश , कर्नाटक, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश छत्तीस गढ़ के कई जिले शामिल थे . इस रियासत पर हुकूमत करने वाले निजाम दुनिया के सबसे अमीर शख्स में से थे . और निजाम, हैदराबाद को आजाद मुल्क बनाना चाहते थे . और इसका एलान 12 जून 1947 को ही कर दिया था . इस रियासत को भारत में मिलाये बगैर संयुक्त भारत महज एक कल्पना होती एक सपना होता . 15 अगस्त 1947 को हैदराबाद उन रियासतों में से एक था जिसने भारत में शामिल होना तो दूर. इस बारे में बातचीत करने के लिये भी तैयार नहीं था . 1947 के नवंबर महिने में जब, निजाम का खासमखास , कासिम रजवी दिल्ली आया . लेकिन किसी बातचीत के ख्याल से नहीं . बल्कि धमकी देने .
कासिम रजवी- पटेल साहब हमारे निजाम ने साफ साफ कह दिया है कि दो मुल्कों में समझौता होता हैं वैसे ही समझौते हम आपके साथ कर सकते हैं. आपकी सहूलियत के लिए. हैदराबाद कभी भी अपनी खुदमुख्तारी और आजादी को आपके पैरों तले नहीं रख सकता है . बेहतर यही है कि आप अपना ये सपना छोड़ दे . पटेल – कासिम साहब चाय लीजिए . सरदार पटेल- हैदराबाद का इतिहास इस बात की गवाही नहीं देता कि आप कभी आजाद मुल्क रहें . हैदराबाद हमेशा हिंदुस्तान की रियासत रहा है. और अब जब अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़कर चले गए वैसे ही हैदराबाद को अपना निजाम आवाम के हांथ में देना होगा . इसी में आपकी और आपके निजाम की भलाई है .
कासिम रज़वी- पटेल साहब आप हमारी फिक्र ना करें तो अच्छा है . वो दिन दूर नही है जब हैदराबाद की सरहदों को अरब सागर की लहरें छूयेगी और असफ जाही निजाम का झंडा लाल किले पर लहराएंगे. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेस डॉ आई तिरुमलि बताते हैं कि कासिम रजवी हैदराबाद को स्वतंत्र चाहते थे. निजाम के राज में , 1946 के पहले कासिम रजवी बहुत जुल्म ढ़ा रहा था . हैदराबाद की सरकार ने एक कमेटी का गठन किया और जब कमेटी ने जांच की तो ये पता चला कि कासिम रजवी एक अपराधी है . सरदार पटेल से कासिम रज़वी की ये पहली और आखिरी मुलाकात थी. कासिम रजवी ने मजलिस-ए-इत्तिहाद-उल-मुसलमीन का नेता था इसने रजाकार नाम से संगठित हथियारबंद गिरोह तैयार कर रखी थी . जो रियासत में खुलेआम सांप्रदायिक लूटपाट हत्या और बलात्कार को अंजाम दे रहा था . निजाम और उसकी सरकार नंवबर 1947 आते आते पूरी तरह से इनकी गिरफ्त में था .
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ आई तिरुमलि बताते हैं कि कासिम रजवी ने ये एलान कर दिया कि हिंदुओं कि सत्ता में भागीदारी नहीं होगी हिंदुओं को मुस्लिम शासन कबूल करना ही होगा . सिर्फ मुस्लिम को ही राज करने का हक है , कासिम रजवी एक सांप्रदायिक शख्स था और उसी वजह से उसने एक बहुत बड़ी फौज तैयार की थी जिन्हें रजाकार कहा जाता था .
कासिम रजवी ने नवाब के इर्द गिर्द अपने लोग भर दिए थे . हैदराबाद में वही होता था जो कासिम रजवी चाहता था . लेकिन फिर भी बड़ी मुश्किल से भारत सरकार ने हैदराबाद सरकार के साथ एक स्टैंडस्टील एग्रीमेंट साइन किया . जिसका मतलब ये था कि वो काम जो हैदराबाद और बाकी हिंदुस्तान में होता था और जैसे भी होता था वो एक साल तक वैसे ही चलता रहेगा. लेकिन हैदराबाद के नवाब ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ एसेशन साइन करने से मना कर दिया और ये भारत के लिए बड़ी मुश्किल थी क्योंकि उसके बगैर हैदराबाद हिंदुस्तान में शामिल नहीं हो सकता था .
स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि हैदराबाद ने पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपए उधार दे दिए .पाकिस्तान से हथियार की आमद की रिपोर्ट आने लगी . उधर दिल्ली में खुद जवाहर लाल नेहरु और उनकी पार्टी के कई सदस्य हैदराबाद के खिलाफ सैनिक कार्रवाई का विरोध कर रहे थे . उनका मानना था कि इससे दक्षिण भारत में भी दंगे फैल सकते हैं. और बातचीत से ही रास्ता निकाला जाना चाहिये. इस वक्त तक तीनों सेनाओं के प्रमुख ब्रिटेन के ही थे और डिफेंस कमिटी के चेयरमैन खुद माउंटबेटन थे . सेना प्रमुख और अधिकारियों के विरोध के बाद सरदार पटेल ने साफ कहा कि अंतत: आर्मी की कार्रवाई से कानून और व्यवस्था की बहाली नहीं होती है . पंजाब को देखिये पिछले साल अगस्त में वहां मौजूद 55 हजार सैनिकों के बावजूद नरसंहार हुये . दरअसल , सरकार के इकबाल और सैन्य कार्रवाई की क्षमता से कानून व्यवस्था कायम होती है. और इस वक्त सरकार का इकबाल इतना जरुर है कि हैदरावाद में कार्रवाई भी हो और दूसरी जगह व्यवस्था भी कायम रखी जा सके . अगर ऐसा नहीं हुआ तो सरकार की प्रतिष्ठा गिर जायेगी और तब चाहे आप कितने भी सैनिक लगा दें आंतरिक सुरक्षा कायम नहीं हो सकती .
संदेश साफ था सैनिक विकल्प के अलावा कोई रास्ता नहीं है . माउंटबेटन की अध्यक्षता वाली डिफेंस कमिटी ने सैन्य तैयारी को मंजूरी दे दी . माउंटबेटन ने लिखा है कि ये बात मीटिंग में पंडित नेहरु ने खुल कर रही कही और मुझे व्यक्तिगत तौर पर आश्वासन भी दिया कि जब तक कि हैदाराबाद में हिंदुओं के कत्लेआम जैसी घटनाये न हो वो आपरेशन( मिलिट्री) की इजाजत नहीं देंगे .
हैदराबाद के शासक किसी भी समझौते के लिये तैयार नहीं थे . और सरदार पटेल के मन में कोई दुविधा नहीं थी . वो जानते थे कि सैन्य कार्रवाई के अलावा हैदराबाद को भारत में शामिल करने का कोई और रास्ता नहीं थे . इस मामले में 8 सितंबर 1948 को अहम कैबिनेट मीटिंग हुई . इस मीटिंग में पटेल ने साफ कहा कि हैदराबाद की अराजकता बगैर सैन्य कार्रवाई के खत्म नहीं हो सकती . लेकिन प्रधानमंत्री नेहरु, इस मामले में सरदार पटेल और उनके मंत्रालय के कामकाज को लेकर काफी नाराज थे . उनकी राय अलग थी . सरदार मीटिंग से उठ कर चले गये . बाद में 13 सिंतबर से सैन्य कार्रवाई की शुरुआत की इजाजत दे दी गई .
भारतीय सेना ने 13 सितबंर 1948 को ऑपरेशन कैटरपिलर शुरु कर दिया जिसे आपरेशन पोलो या पुलिस एक्शन भी कहा जाता है .निज़ाम- हमनें भारत के गवर्नर जनरल सी राजागोपालाचारी को इत्तला दे दी है कि हमने रियासत की सियासी हालात को देखते हुए हमने हुकूमत को पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया है. हमें अफसोस है कि ये फैसला हम पहले नही ले सके. हमने अपनी फौज को जंग रोकने का हुक्म दे दिया है. और हम इंस्ट्रूमेंट आफ एक्सेशन पर दस्तखत करने के लिये भी तैयार हैं.
इस एलान के बाद निजाम की सेना ने भारतीय फौज के सामने समर्पण कर दिया. और हैदराबाद की रियासत पूरी तरह से भारत में शामिल हो गई . नवाब की वजह से सैंकड़ो जान गयी लेकिन सरदार पटेल और नेहरु दरियादिली दिखाई . विलय के बाद मीर उस्मान अली को हैदराबाद का राजप्रमुख बनाया गया .
इसी तरह जम्मू कश्मीर को बचाने के लिये 1947 में सेना भेजने की जरुरत थी .तब सरदार पटेल ने माउंटबेटन और सैनिक अफसरों की राय के उलट सेना भेजने का बड़ा फैसला किया . और ये फैसले वो बतौर उपप्रधानमंत्री ले रहे थे . बतौर गृहमंत्री ले रहे थे . कई बार इन फैसलों का विरोध कोई और नहीं खुद प्रधानमंत्री नेहरु कर रहे होते थे . शायद इसीलिये वो सरदार थे पद से नहीं अपने काम से .