एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने की है अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की निंदा

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अर्नब गोस्वामी: आत्महत्या के लिए उकसाने के एक मामले में पत्रकार अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी के बाद विवाद बढ़ता ही जा रहा है। एक और जहां इसे प्रेस की स्वतंत्रता पर बड़ा हमला बताया जा रहा है, वहीं अब इस मामले को लेकर पुलिस की पूरी कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हैं। सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि यह केस दोबारा खोला गया है। पिछले साल 2019 में महाराष्ट्र पुलिस ने केस को यह कहते हुए बंद कर दिया था कि उन्हें पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी की निंदा करते हुए कहा है कि महत्वपूर्ण रिपोर्टिंग के खिलाफ राज्य शक्ति का उपयोग नहीं किया जाए।गौरतलब है कि पांच मई 2018 को एक इंटीरियर डिजानइर अन्वय नाईक ने महाराष्ट्र के अलीबाग में सुसाइड कर लिया था, उनकी मां भी घर में मृत पाई गई थीं। पत्रकार अर्नब गोस्वामी के खिलाफ आरोप है कि उन्होंने इंटीरियर डिजाइनर के पैसों का भुगतान नहीं किया और उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर किया।

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस घटना की तुलना आपातकाल से करते हुए इसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला बताया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पत्रकारों सहित कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र सरकार बदले की कार्रवाई के लिए कानून का बेजा इस्तेमाल नहीं कर सकती। एक पत्रकार के साथ पुलिस की इस तरह की कार्रवाई लोकतंत्र की आवाज का गला घोंटना है।

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बहुलता से बहुलवाद तक विषय पर व्याख्यान देते हुए लोकतंत्र में असहमति को सेफ्टी वाल्व बताया था। असहमति को राष्ट्र विरोधी और लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण एवं विचार विमर्श करने वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रति देश की प्रतिबद्धता की मूल भावना पर चोट करती है। विचारों को दबाना देश की अंतरआत्मा को दबाना है। असहमति का अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त सबसे महत्वपूर्ण अधिकार है और इसमें आलोचना का अधिकार भी शामिल है। ऐसे में सही मायनों में लोकतंत्र तभी माना जाता है, जब सरकार के प्रति व्यक्त असहमति और आलोचना का भी तहेदिल से स्वागत किया जाए।

पुलिस की कार्यशैली पर सवाल

पुलिस और मीडिया सहित कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, लेकिन पुलिस को उचित प्रक्रिया का पालन करना चाहिए था। पत्रकारों की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग के खिलाफ सरकारी ताकत का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। किसी पत्रकार को पुलिस हिरासत में लेने से पहले उसके साथ पर्याप्त संवाद किया जाना चाहिए। पुलिस को कोई भी कानून किसी पत्रकार को इस तरह से गिरफ्तार करने की अनुमति नहीं देता है। सवाल यह है कि कैसे बिना नोटिस के किसी को सीधे गिरफ्तार किया या फिर समन और नोटिस भेजे जाने और उचित समय दिए जाने के बाद भी उपस्थित नहीं होने पर अर्नब को गिरफ्तार करना पड़ा?

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