Delhi violence: हाल ही में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी हिस्से में फैले सांप्रदायिक हिंसा के कारण 53 से अधिक लोगों की जान चली गई। इस हिंसा और उपद्रव की चपेट में हजारों लोगों के आने से देश की राजधानी की व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई। इन सबसे बढ़ कर यह कि सांप्रदायिक दंगों में हुए करोड़ों रुपये की आर्थिक क्षति तो होती ही है, देश की आंतरिक सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाती है।
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इन दंगों में नागरिकों द्वारा हथियारों का इस्तेमाल किया जाना बताता है कि देश की आंतरिक सुरक्षा किस कदर खतरे में है। यकीनन अवैध हथियारबंद लोगों के चलते नागरिकों का भय के माहौल में जीने से देश की एकता व अखंडता खतरे में पड़ जाती है। गौर करें तो आंतरिक सुरक्षा का मुद्दा लोगों की संपत्ति, मौलिक और मानव अधिकार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे पहलुओं से भी जुड़ता है और सांप्रदायिक दंगे जैसी घटनाएं इन पहलुओं के लिए चुनौतियां बन कर उभर रही है।
दरअसल सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले एवं उससे पीड़ित होने वाले दोनों ही पक्षों में देश के ही नागरिक शामिल होते हैं, ऐसे में इस नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सांप्रदायिक दंगे युवाओं को राह से भटकाते हैं। नागरिकों में नक्सलवाद और आतंकवाद जैसी अवैध गतिविधियों के प्रति आकर्षित होने की आशंका में तीव्र वृद्धि देखने को मिलती है। कई राज्यों में नक्सलवाद कहें या फिर देश के अंदर आतंकी संगठनों के पैर पसारने की बात करें, कहीं न कहीं ऐसे दंगे भी जिम्मेदार हैं। सोचिए कि अगर देश के युवा ऐसी गतिविधियों में संलिप्त होना प्रारंभ कर दें, तो देश की आंतरिक सुरक्षा को सुनिश्चित कर पाना कितना मुश्किल हो जाएगा।
इसका एक पहलू यह भी है कि बारंबार तनाव की स्थिति पैदा होने से कानून एवं व्यवस्था के प्रति लोगों में अविश्वास की भावना का निर्माण होता है। हिंसात्मक घटनाओं को रोकने में नाकाम होने से प्रशासनिक व्यवस्था की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आती है। इससे एक बात पता चलती है कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए जो जरूरी कवायद होनी चाहिए, उसका अभाव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद से ही भारत आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर कई प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहा है।
इन चुनौतियों का समाधान कैसे हो? हिंसक घटनाओं की बड़ी वजह आंतरिक सुरक्षा के प्रबंधन में व्याप्त खामियां हैं। किसी भी समस्या के समाधान के लिए दीर्घकालिक नीतियां जरूरी है ताकि मूल कारणों पर काम करके समस्या का समाधान निकाला जा सके। इसी केसाथ अल्पकालिक नीतियां भी बन जाती हैं जिससे तात्कालिक समस्याओं का निपटारा किया जाता है। लेकिन चिंता का विषय है कि भारत सरकार के पास ऐसी कोई मजबूत नीति नहीं है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए 2005 में तैयार किए गए सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक को कानूनी रूप नहीं दिया जा सका है। इसी तरह माओवादी हिंसा से निपटने के लिए भी भारत सरकार के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं दिखाई पड़ती।
केंद्र सरकार ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिए ‘समाधान’ नामक आठ सूत्री पहल की घोषणा जरूर की है। इसके तहत नक्सलियों से लड़ने के लिए रणनीतियों पर जोर दिया गया है, पर अभी तक यह पता नहीं चल सका है कि यह कितना कारगर साबित हुआ है। एक खामी यह भी है कि हमारी सरकारें पुलिस सुधार की जरूरतों को नजरअंदाज कर रहीं हैं। हालिया दिल्ली दंगे में पुलिस कार्रवाई पर सवालिया निशान इसी का एक पहलू है। आधुनिक प्रशिक्षण के अभाव में पुलिस दंगाई से निपटने में सक्षम नहीं हो पाती।
केंद्र- राज्य में समन्वय का अभाव : कानून-व्यवस्था के मसले पर राज्य- केंद्र संबंधों में सशक्त भागीदारी का अभाव भी देखा जा रहा है। कानून- व्यवस्था राज्य का मसला है, पर कभीकभी मामले इतने ज्यादा गंभीर हो जाते हैं कि राज्य सरकार हालात पर काबू नहीं कर पाती। लिहाजा, केंद्र-राज्य संबंध की जड़ता भी आंतरिक सुरक्षा की राह में एक बड़ी खामी है। ऐसे में पुलिस व्यवस्था को राज्य सूची से बाहर कर समवर्ती सूची में शामिल करने की जरूरत है। इससे यह होगा कि समय-समय पर केंद्रीय स्तर पर पुलिस व्यवस्था की समीक्षा की जा सकेगी और आपातकालीन स्थिति में केंद्रीय बल मदद को तैयार रहेंगे।
हमें आंतरिक सुरक्षा को भी उतनी ही अहमियत देने की जरूरत है जितनी कि बाह्य सुरक्षा को देते हैं। आंतरिक सुरक्षा को कम करके आंकना सुरक्षा के लिहाज से घातक सिद्ध हो सकता है। आंतरिक सुरक्षा कई बार चुनौती बनकर हमारे सामने खड़ी हो जाती है। इस कड़ी में यह नहीं भूलना चाहिए कि नफरती या भड़काऊ भाषण देने वाले नेतागण भी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए उतने ही खतरनाक हैं जितने कि कोई अपराधी। ऐसे में बिना भेदभाव के इन नेताओं पर कार्रवाई आंतरिक सुरक्षा के लिए बेहद अहम कदम हो सकता है।
आंतरिक सुरक्षा के लिए समेकित आंतरिक सुरक्षा नीति की भी जरूरत है जिसके तहत राज्य व केंद्र सरकार मिलकर देश की सुरक्षा सुनिश्चित कर सके। इससे इतर, वर्तमान आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार भी बड़ा उपाय है। समझना होगा कि मामलों के निपटाने में देरी से अपराधों में इजाफा होता है। ऐसे में जजों की पर्याप्त नियुक्ति और फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थापना महत्वपूर्ण है।
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