आज भी याद है वो मंजर,जब रातों रात जम्‍मू कश्‍मीर से अपना घर छोड़ कर भागना पड़ा था

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नई दिल्‍ली : जम्‍मू कश्‍मीर की संवैधानिक स्थिति में हुए बदलाव के बाद कश्‍मीर से रातों रात अपना घर छोड़कर भागने वाले विस्‍थापितों को अब घर वापसी की उम्‍मीद जगने लगी है। लेकिन इस उम्‍मीद में उनका दर्द भी साफतौर पर छलक रहा है। साथ ही एक सवाल भी उठ रहा है कि क्‍या इस बदलाव से उन्‍हें वहां पर सुरक्षित माहौल मिल सकेगा। इस नए और एतिहासिक बदलाव का असर घाटी समेत पूरे राज्‍य पर किस तरह से पड़ता है यह तो वक्‍त ही बताएगा। लेकिन इस बीच दैनिक जागरण ने कुछ विस्‍थापितों से उनका दर्द जानने की कोशिश की। इनमें से एक हैं रवि कौल, दूसरे हैं एन के भट्ट और तीसरे हैं एम धर।

ये 90 के दशक की बात है

भट्ट और कौल साहब भारतीय जीवन बीमा निगम से रिटायर हो चुके हैं और फिलहाल गाजियाबाद में रह रहे हैं। वहीं धर साहब बैंक से रिटायरमेंट लेकर गाजियाबाद में ही रह रहे हैं। इन सभी का दर्द और उम्‍मीद एक जैसी है। इन तीनों को ही वो दिन आज तक याद है जब रातों रात इन्‍हें अपना घर छोड़कर जान बचाकर परिवार के साथ भागना पड़ा था। ये 90 के दशक की बात है जब जम्‍मू कश्‍मीर में आतंकवाद चरम पर था। हर रोज लोगों के मारे जाने की घटनाएं आम हो गई थीं। कौल बताते हैं कि वह अपनी मां, बीवी और बच्‍चों के साथ अनंतनाग में रहते थे। जिस वक्‍त राज्‍य में आतंकवाद शुरू हुआ धीरे-धीरे वहां से सरकारी ऑफिस भी अपना कामकाज समेटने लगे थे। एलआईसी की जिस ब्रांच में कौल काम करते थे वहां पर भी आतंक का साया नजर आने लगा था। आतंकियों की नजरें कश्‍मीरी पंडितों पर लगी थीं। उनका मकसद या तो उन्‍हें मारना था या फिर उन्‍हें भगाना था।

उनकी पत्‍नी आतंकियों से कौल साहब के जीवन की भीख मांग रही थी

अनंतनाग में सरकारी जॉब और दहशत के बीच दिन काट रहे कौल बताते हैं कि आतंकवाद के चलते बच्‍चों का बाहर निकलना बंद हो चुका था। पूरा दिन बच्‍चे घर में ही रहते थे। जब भी गेट बजता था तब मन में इस बात का डर रहता था कि न मालूम गेट के दूसरी तरफ कौन हो। उनका ये डर एक दिन सच साबित हुआ। एक रात करीब दस बजे उनके गेट पर किसी ने दस्‍तक दी। कौल साहब ने गेट खोला तो सामने चार आतंकी हाथों में एके 47 लिए और मुंह पर कपड़ा बांधे खड़े थे। पूरा घर उन्‍हें देखकर सन्‍न रह गया था। आतंकियों ने कौल साहब को धक्‍का देकर नीचे गिरा दिया और उनके सीने पर राइफल तान दी। उनकी पत्‍नी आतंकियों से कौल साहब के जीवन की भीख मांग रही थी और बच्‍चे डर के मारे दीवार के पीछे छिपे थर-थर कांप रहे थे।

कौल साहब बताते हैं कि वो दिन शायद अच्‍छा था कि आतंकियों ने उन्‍हें गोली नहीं मारी और ये कहते हुए वहां से चले गए कि दिन निकलने तक वो परिवार समेत वहां से चले जाएं। यदि ऐसा नहीं हुआ तो अगले दिन सभी को मार दिया जाएगा। आतंकियों के जाने के बाद बिना देर किए कौल साहब ने कुछ सामान लिया और रातों-रात घर से निकल गए। दिल में दहशत थी और आंखों में आंसू थे। दिन में अपना ही घर छोड़ने का दर्द था। वो नहीं जानते थे कि उन्‍हें कभी वापस आने का मौका मिलेगा भी या नहीं। सुनसान सड़क पर मिली एक टैक्‍सी से वो किसी तरह से जम्‍मू पहुंचे और फिर दिल्‍ली। उन्‍हें दिल्‍ली में नए ऑफिस में ज्‍वाइनिंग तो मिल गई लेकिन वह डेढ़ दशक तक कभी अपने घर नहीं जा सके।

उनकी बूढ़ी मां ने भी दिल्‍ली में ही आखिरी सांस ली

उनकी बूढ़ी मां ने भी दिल्‍ली में ही आखिरी सांस ली। वो बताते हैं कि उनकी मां आखिरी समय तक भी वापस अपने घर जाने की उम्‍मीद बांधे रखी थी। यह पल उनके लिए काफी बुरा था, क्‍योंकि वो अपनी मां की आखिरी ख्‍वाहिश पूरी करने में नाकाम साबित हुए थे। डेढ़ दशक के बाद जब उन्‍हें वापस अनंतनाग जाकर अपने घर जाने का मौका मिला तो वहां पर काफी कुछ बदल चुका था। दूसरे लोग घर में बस चुके थे। उनके लिए वह अंजान थे। उनके आसपास जो भी हिंदू रहते थे वो भी दूसरी जगह पर जा चुके थे। वहां पर वो अंजान थे। कुछ पल अपने घर को देखने के बाद वो उलटे पांव आंखों में आंसू भरकर वापस दिल्‍ली लौट आए। अब जब केंद्र सरकार ने जम्‍मू कश्‍मीर पर अपना कड़ा फैसला लिया है तो उन्‍हें फिर उम्‍मीद बंधी है कि शायद वह वापस अपनी जमीन पर जा सकें और शायद उन्‍हें अपना घर वापस मिल जाए।

कौल साहब इस कहानी के केवल एक किरदार ही नहीं है। एनके भट्ट की भी कहानी ऐसी ही है। जिस वक्‍त घाटी आतंकवाद की चपेट में नहीं आई थी तब उनके पड़ोस में रहने वाले एक शख्‍स ने उनके मकान के 15 लाख रुपये लगाए थे। लेकिन आतंकवाद के पनपने और कौल साहब की तरह ही उनके परिवार को आतंकियों की धमकी मिलने के बाद भट्ट साहब को अपना मकान रातों रात महज दो लाख की कीमत में बेचना पड़ा। उन्‍हें आज भी वो पल याद है जब वह अपना घर छोड़कर परिवार को लेकर हमेशा के लिए जान बचाकर दिल्‍ली भाग आए थे।

गाजियाबाद में ही रह रहे धर साहब बताते हैं कि

गाजियाबाद में ही रह रहे धर साहब बताते हैं कि उनके घर में करीब 15 कमरे थे। नौकर थे। हर तरह से बेहतर जिंदगी वो श्रीनगर में जी रहे थे। लेकिन आतंकवाद ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। जो कभी अपने हुआ करते थे उन्‍होंने भी साथ छोड़ दिया। तीन दशकों से दिल्‍ली और फिर गाजियाबाद में रहने वाले धर बताते हैं कि जब वह कुछ माह पहले अपने घर की तरफ वापस गए तो वहां पर पहले जैसा कुछ नहीं रह गया था। उनके घर पर भी कई लोगों ने कब्‍जा कर लिया था। उसके हिस्‍से कर अलग-अलग उसको बेचा जा चुका था। वहां पर रहने वाले सभी लोग नए थे। उनके मुताबिक जिस गली में उनका घर था वहां के कई लोग अपना घर छोड़कर वहां से जा चुके थे। उन्‍हें लगा कि वह किसी अंजान जगह पर हैं। न कोई उन्‍हें जानता था और न ही वो किसी को जानते थे। मायूस होकर वापस लौटे धर साहब को भी अब उम्‍मीद है कि वो किसी न किसी दिन जरूर अपने घर वापस लौटेंगे।

 

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